घोड़ा जीरा को ईसबगोल भी कहते हैं। इसबगोल की उत्पत्ति संस्कृत के शब्द 'एस्प' और 'घोल' से हुई है। इसकी विभिन्न शब्दावली हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि इस चिपचिपे, तैलीय बनावट वाले फाइबर सप्लीमेंट के स्वास्थ्य लाभों की एक विशाल श्रृंखला थी। मीठे और कसैले स्वाद का मिश्रण, इसबगोल के एक चम्मच में 20 कैलोरी, 10 मिलीग्राम सोडियम और 0.2 प्रोटीन होता है।
पश्चिम राजस्थान और उत्त री गुजरात में रबी मौसम में यह फसल प्रमुख रूप से की जाती है। किन्तु हरियाणा, पंजाब और मध्यप्रदेश में भी इसकी खेती आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण एवं औषधीय फसल होने के कारण की जा रही है। संसार का 80% ईसबगोल हमारे देश में पैदा होता है। साथ ही हरियाणा, पंजाब और मध्यप्रदेश में भी ईसबगोल का उपयोग आयुर्वेदिक, यूनानी और पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में प्रयोग किया जाता है। साथ ही एलोपैथिक चिकित्सा में भी इसे स्वीकार किया गया है। भूसी रहित बीज का उपयोग पशु व मुर्गी आहार में किया जाता है।
इसबगोल एक महत्त्वपूर्ण नकदी व औषधीय फसल है। विश्व की कुल पैदावार की 80 फीसदी इसबगोल की पैदावार भारत में होती है। इसकी खेती मुख्य रूप से राजस्थान व गुजरात में की जाती है। इसबगोल को मुख्यतया दानों के लिए उगाया जाता है। पर इसका सबसे कीमती भाग इसके दानों पर पाई जाने वाली भूसी है। जिस की मात्रा बीज के भार की 27-30 फीसदी तक होती है।
गुजरात ईसबगोल 2 : यह किस्म 118 से 125 दिन में पक जाती है। तथा 5-6 क्विंटल प्रति एकड़ तक उपज दे सकती है। इसमें भूसी की मात्रा 28% से 30% तक पाई जाती है।
आर आई 89 : राजस्थान के शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए विकसित यह किस्म 110 से 115 दिन में पक जाती है। तथा उपज क्षमता 4.5 से 6.5 क्विंटल प्रति एकड़ है। यह किस्म रोगो तथा कीटों के आक्रमण से कम प्रभावित होती है। साथ ही भूसी उच्च गुणवत्ता वाली होती है।
आर आई - 1 : राजस्थान के शुष्क एवं अर्ध शुष्क क्षेत्रों के लिए विकसित इस किस्म के पौधों की ऊंचाई 29 से 47 सेंटीमीटर होती है। यह किस्म 112 से 123 दिन में पक जाती है। तथा उपज क्षमता 4.5 से 8.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
जवाहर ईसबगोल 4 : यह प्रजाति मध्य प्रदेश के लिए अनुमोदित एवं जारी की गई है। इसका उत्पादन 5.5 से 6 क्विंटल प्रति एकड़ लिया जा सकता है।
हरियाणा ईसबगोल 5 : इसका उत्पादन 4-5 क्विंटल प्रति एकड़ हेक्टर लिया जा सकता हैं।
इसके अलावा निहारिका, इंदौर ईसबगोल-1, मंदसौर ईसबगोल भी बेहतरीन किस्में है।
तुलासिता रोग के प्रकोप से फसल को बचाने हेतु मेटालेक्सिल 35% SD 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करें । अच्छी उपज के लिए ईसबगोल की बुवाई नवंबर के प्रथम पखवाड़े में करना उत्तम रहता है। इसका बीज बहुत छोटा होता है। इसलिए इसे क्यारियों में छिटक कर रैक चला देना चाहिए।
बुवाई के तुरंत बाद सिंचाई कर दें. इस प्रकार छिटक कर के बुवाई करने से 4 से 5 किलो प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है। ईसबगोल को 30 सेंटीमीटर की दूरी पर कतारों में बुवाई करने से निराई गुड़ाई में सुविधा रहती है व साथ ही साथ तुलासिता रोग की तीव्रता भी कम होती है। अगर हो सके तो कतारें पूर्व से पश्चिम तथा या पश्चिम से पूर्व दिशा में निकालें. अन्य दिशाओं में कतारें निकालने से रोग का प्रकोप अधिक देखा गया है। प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या 3.4 लाख के करीब होनी चाहिए क्योंकि सघन पौधे की संख्या से ज्यादा रोग पनपता है।
ईसबगोल की फसल के लिए ठंडा एवं शुष्क जलवायु उपयुक्त रहता है। बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए 20 से 30 डिग्री सेंटीग्रेड के मध्य का तापमान व मिट्टी का पीएच मान 7-8 सर्वोत्तम होता है। साफ, शुष्क, और धूप वाला मौसम इस फसल के पकाव अवस्था के लिए बहुत जरूरी है। पकाव के समय वर्षा होने पर बीज झड़ जाता है तथा छिलका फूल जाता है। जिससे बीच की गुणवत्ता में पैदावार दोनों पर काफी प्रभाव पड़ता है। इसकी खेती के लिए दोमट, बलुई मिट्टी जिसमें जल निकासी की उचित प्रबंध हो, उपयुक्त होती है।
खरीफ फसल की कटाई के बाद भूमि की दो से तीन जुताई कर मिट्टी को भुरभुरी बनाएं. दीमक व भूमिगत कीड़ों की रोकथाम हेतु अंतिम जुताई के समय क्यूनोलफॉस 1.5% चूर्ण 10 किलो प्रति एकड़ की दर से मिट्टी में मिला दे. या जैविक फफूंदनाशी बुवेरिया बेसियाना एक किलो या मेटारिजियम एनिसोपली एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत में बीखेर दे. मिट्टी जनित रोग से फसल को बचाने के लिए ट्राइकोडर्मा विरिड की एक किलो मात्रा को एक एकड़ खेत में 100 किलो गोबर की खाद में मिलाकर खेत अंतिम जुताई के साथ मिट्टी में मिला दें. जैविक माध्यम अपनाने पर खेत में पर्याप्त नमी अवशय रखें।
अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद ईसबगोल की खेती के लिए लाभकारी है। इसलिए 15 से 20 तक सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर के हिसाब से आखरी जुताई के समय मिट्टी में मिलाएं। इसको 30 किलो नाइट्रोजन और 25 किलो फास्फोरस की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी एवं फास्फोरस की पूरी मात्रा बीज की बुवाई के समय 3 इंच गहरा उर्वरक दें तथा शेष आधी मात्रा बुवाई के एक माह बाद सिंचाई के साथ दें.।
पौधे में 60 दिन बाद बालियां निकलना शुरू होती है। और करीब 115 से 130 दिन में फसल पक कर तैयार हो जाती है। पकने पर फसल सुनहरी पीली और बालियां गुलाबी-भूरी हो जाती है। तथा बालियों को अंगूठे और उंगलियों के बीच हल्का सा दबाने पर बीज बाहर निकलने लगता है। कटाई के समय मौसम एकदम सूखा होना चाहिए पौधों पर बिल्कुल नमी होनी चाहिए। फसल को एकदम नीचे से या जड़ सहित उखाड़ लिया जाता है। पौधों को बड़े-बड़े कपड़ों में बांधकर खलिहान में फैला दिया जाता है। दो-तीन दिन बाद डंडे से पीटकर या ट्रैक्टर से गहाई की जाती है।
आप दैनिक फाइबर खपत के अविश्वसनीय स्वास्थ्य लाभों से काफी परिचित हैं। यह जानवरों में कब्ज को रोक सकता है। आंत्र समारोह को सामान्य कर सकता है। और जानवरों में सामान्य भूख को बनाए रख सकता है। भुसी, जिसे आमतौर पर इसबगोल के नाम से जाना जाता है। एक ऐसा ही फाइबर सप्लीमेंट है। इसबगोल एक प्राकृतिक वनस्पति आहार फाइबर है। जिसे इसबगोल के बीजों से मिलिंग प्रक्रिया के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। आयुर्वेद में इसबगोल का विशेष महत्व है। यह एक वेटिंग एजेंट के रूप में काम करता है। जिससे जानवरों को कब्ज से राहत मिलती है। इसबगोल आसानी से पित्त अम्लों को बांध सकता है। जिससे इसे पचाना आसान हो जाता है। और शरीर से उत्सर्जन को नियंत्रित किया जा सकता है। इस प्रकार, यकृत को पित्त से बाँधने के लिए अधिक कोलेस्ट्रॉल की आवश्यकता होती है। जो अप्रत्यक्ष रूप से कोलेस्ट्रॉल को कम करता है।
पेट फूलने से जानवर चिड़चिड़ा, तनावग्रस्त और असहज महसूस कर सकते हैं। यह पेट में बिना पचे भोजन और गैस के ऊपर उठने के कारण होता है। इसबगोल बहुसंयोजी आयनों का उत्पादन कर सकता है। जो आंशिक रूप से पचने वाले भोजन को बांधता है और मल और गैस को छोड़ना आसान बनाता है। यह जानवरों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाता हैं और अच्छी ग्रोथ भी होती है।